Last updated: February 09, 2024 |
प्रिय कैडेट्स एवं विद्यार्थियों !! जीवन पथ पर चलते हुए अनेक अवसरों पर आप को निराशाजनक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, या कह लें तो “You Feel Low”. बहुत सी बार तो परिस्थितियां इतनी बुरी भी नहीं होती जितना आपका मन उन्हें बुरा मान लेता है । आज की पीढ़ी को निश्चय ही पहले की पीढ़ी की तुलना में अधिक सुविधाएं मिली हैं लेकिन यह भी सत्य है कि आज की पीढ़ी पहले की पीढ़ी की तुलना में अधिक अवसादग्रस्त (Depressed) हो रही है । मानसिक शांति एवं प्रसन्न्ता का सुविधाएं मिलने न मिलने से कोई सम्बंध नहीं, यह निर्भर करता है जीवन एवं उससे जुड़ी परिस्थितियों को आपके देखने के दृष्टिकोण पर..... स्मरण रहे कि ऐसी कोई जटिल परिस्थिति नहीं जिसे मानव की जीवटता परास्त न कर सके । नशे में पड़ना या अवसाद ग्रस्त होना किसी भी समस्या का समाधान नहीं, यह बात जितना शीघ्र आप समझ पाएंगे उतनी ही शीघ्रता से आप जीवन में उन्नति कर पाएंगे । अत: इस वैब पृष्ठ पर कुछ जीवन-उपयोगी बातों का संकलन किया गया है, ताकि आवश्यकता पड़ने पर एवं परिस्थितिअनुसार इन्हें पढ़ कर आप सकारात्मकता से परिपूर्ण हो अपने जीवन को सही मार्ग पर ले जा सकें और राष्ट्र निर्माण एवं सच्चरित्र समाज हेतु अपना योगदान दे सकें, जो कि राष्ट्रीय कैडेट कोर का भी मुख्य लक्ष्य है । इस संकलन में जीवन के विभिन्न आयामों से सम्बंधित बातें / विचार लिखे गए हैं, परिस्थिति के अनुसार जो भी विचार आपको संबल प्रदान करे, उन्हें पढ़िये तथा अनुसरण करिये । यदि आपका कोई मित्र भी अवसाद ग्रस्त हो गया है तो आप उसे भी इस पृष्ठ को पढ़ने हेतु प्रेरित करिए...... आप सभी उन्नति की ओर अग्रसर हों, माता-पिता, गुरुजनों, अपने-अपने संस्थानों, मित्रों एवं राष्ट्र के लिए प्रसन्न्ता का कारक बनें, राष्ट्रीय कैडेट कोर—हि. प्र. कृषि विश्वविद्यालय इकाई ऐसी कामना करती है.....
Compiled By: Dr. (Lieutenant) Ankur Sharma (Associate NCC Officer)
विद्या एवं विद्यार्थियों के संदर्भ में : सरस्वती नमस्तुभ्यं, वरदे कामरूपिणि | विद्या-आरम्भं करिष्यामि, सिद्धिः भवतु मे सदा || अर्थ – वरदान और कामनाओं को पूर्ण करनेवाली माँ सरस्वती तुमको मेरा सादर नमस्कार है | मैं विद्या पढ़ने का काम प्रारंभ करूँगा | मुझको हमेशा सफलता प्राप्त हो | क्षणश: कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्। क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्।। क्षण- क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए । क्षण को नष्ट करके विद्या प्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता ।
काक-चेष्टा बको-ध्यानमम्, श्वान-निद्रा तथैव च । अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्च लक्षणं ॥ अर्थ - कौआ की तरह क्रिया करना (जानने की चेष्टा रखना), बगुले के समान ध्यान करना (लक्ष्य प्राप्ति के लिए), श्वान के समान नींद लेते हुए जागरुक रहना, अल्प भोजन करने वाला (कम तथा पौष्टिक बुद्धि-वर्धक आहार), घर का त्याग करने वाला, ये विद्या चाहने वाले छात्र के पाँच लक्षण हैं |
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्याम्,विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् | सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम् || अर्थ - सुख(घर में आराम, आलस्य आदि) चाहने वाले को विद्या छोड़ देनी चाहिए | विद्यार्थी को सुख छोड़ देना चाहिए | क्योंकि सुख चाहने वाले विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ | विद्या प्राप्त करना सबसे बड़ा तप है |
विद्या ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम् | पात्रत्वात् धनम् आप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम् || अर्थ - विद्या हमें विनय (विनम्रता) देती है, विनय से पात्रता (योग्यता) प्राप्त होती है, योग्यता से धन प्राप्त होता है, धन से धर्म (कर्तव्य, श्रेष्ट काम) करता है और अच्छे काम करने से सुख प्राप्त होता है|
न चौरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। जिस को कोई चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता, भाईयों में जिस का बंटवारा नहीं हो सकता, न ही इसका कंधे पर बोझ होता है, और जो खर्च करने से नित्य बढ़ता है, ऐसा विद्या धन (ज्ञान का धन) सभी धनों में प्रधान है (सर्वश्रेष्ठ धन है)।
हर्तुर्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता। संगति, मित्रता, व्यवहार एवं अनुशासन के संदर्भ में :
अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः | आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । नीयते तद् वृथा येन प्रमाद: सुमहानहो ।। अर्थ : सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापस नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निरर्थक ही खर्च कर रहे हैं वे कितनी बड़ी गलती कर रहे हैं ।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्। चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम् ।। तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है ।
महाजनस्य संसर्ग: कस्य नोन्नतिकारक: । पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम् । । महान व्यक्तियों की संगति किसे उन्नति प्रदान नहीं करती? (अर्थात् महान व्यक्तियों की संगति से उन्नति ही होती है)। कमल के फूल पर पानी की बूंद मोती के समान दिखने लगती है ।
सर्प: क्रूर: खल: क्रूर: सर्पात् क्रूरतर: खल: । सर्प: शाम्यति मन्त्रैश्च दुर्जन: केन शाम्यति । । साँप भी क्रूर होता है और दुष्ट भी क्रूर होता है किन्तु दुष्ट सांप से अधिक क्रूर होता है क्योकि साँप के विष का तो मन्त्र से शमन हो सकता है किन्तु दुष्ट के विष का शमन किसी प्रकार से नहीं हो सकता ।
अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानि: पदे पदे । पावको लौहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते । । दुष्ट के संग रहने पर कदम कदम पर अपमान होता है । पावक (अग्नि) जब लोहे के साथ होता है तो उसे घन से पीटा जाता है ।
पिबन्ति नद्य: स्वयमेव नाम्भ: स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा: । नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहा: परोपकाराय सतां विभूतय: । । नदियां स्वयं के जल को नहीं पीती, वृक्ष स्वयं के फल खुद नहीं खाते और बादल अपने द्वारा पानी बरसा कर पैदा किए गए अन्न को नहीं खाते । सज्जन हमेशा परोपकार ही करते हैं ।
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्। उष्णो दहति चांगार: शीत: कृष्णायते करम् । । दुष्ट व्यक्ति, जो कि कोयले के समान होते हैं, के साथ कभी प्रीति नहीं करनी चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है ।
चिन्तनीया हि विपदां आदौ एव प्रतिक्रिया: । न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वन्हिना गृहे । ।
जिस प्रकार घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना युक्तिपूर्ण (सही) कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है । (अर्थात किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए)|
दुर्जन: प्रियवादीति नैतद् विश्वासकारणम् । मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम् । । दुर्जन व्यक्ति यदि प्रिय (मधुर लगने वाली) वाणी भी बोले तो भी उसका विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि उसकी ज़ुबान पर (प्रिय वाणी रूपी) मधु होने पर भी हृदय में हलाहल (विष) ही भरा होता है ।
सर्पदुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जन: । सर्पो दशती कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे । । (यदि साँप और दुष्ट की तुलना करें तो) सांप दुष्ट से अच्छा है क्योकि साँप कभी कभार ही डंसता है पर दुष्ट पग-पग पर (प्रत्येक समय) डंसता है ।
अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च साधयेत् । गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ विद्या और धन का संचय करते समय बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि अपने को अजर तथा अमर समझे (अर्थात बुढापा और मृत्यु नहीं आनेवाले हैं); पर मृत्यु ने हमारे बाल पकड़े हैं, यह समझकर धर्माचरण करना चाहिए (अर्थात सही मार्ग कदापि न त्यागें) ।
शोको नाशयते धैर्यं शोको नाशयते श्रुतम् ।
शोक धैर्य नष्ट कर देता है। शोक ज्ञान को भी नष्ट कर डालता है।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः , प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः । विघ्नै: पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः , प्रारभ्य च उत्तमजनाः न परित्यजन्ति ।। सामान्य लोग विघ्नों के भय से कोई कार्य आरम्भ नहीं करते हैं । मध्यम लोग कार्य आरम्भ तो कर देते हैं किन्तु विघ्न आने पर बीच में ही छोड़ देते हैं । अच्छे लोग कार्य आरम्भ करने के बाद बार-बार विघ्नों के आने के बावजूद भी उसे बीच में नहीं छोड़ते हैं ।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवा:।
कुछ दार्शनिक विचार : योजनानां सहस्त्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका । आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति । । अर्थ : यदि चींटी चल पड़ी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजन (दूरी) भी चल सकती हैं । परन्तु यदि गरूड़ जगह से नहीं हिला तो वह एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता ।
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्।। - यह मेरा है, वह उसका है जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैँ । विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है ।
चिता चिन्तासम ह्युक्ता बिन्दुमात्र विशेषत: । सजीवं दह्ते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता । । चिता और चिंता में मात्र एक बिन्दु (अनुस्वार) का ही अंतर है किन्तु दोनों ही एक समान है, जो जीते जी जलाता है वह चिंता है और जो मरने के बाद (निर्जीव) को जलाता है वह चिता है ।
वृथा वृष्टि: समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्। वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाʃपि च । । समुद्र में हुई वर्षा का कोई मतलब नहीं होता, भरपेट खाकर तृप्त हुए व्यक्ति को भोजन कराने का कोई मतलब नहीं होता, धनाढ्य व्यक्ति को दान देने का कोई मतलब नहीं होता और सूर्य के प्रकाश में दिया जलाने का कोई मतलब नहीं होता ।
वरं एको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चंद्रस्तमो हन्ति न च तारागणोʃपि च । । सौ मूर्ख पुत्र होने की अपेक्षा एक गुणवान पुत्र होना श्रेष्ठ है, अन्धकार का नाश केवल एक चन्द्रमा ही कर देता है पर तारों के समूह नहीं कर सकते ।
अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव परित्यजेत् । शनै: शनैश्च भोक्व्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् । । बहुत अधिक इच्छाएं करना सही नहीं है ओर इच्छाओं का त्याग कर देना भी सही नहीं है । अपने उपार्जित (कमाए हुए) धन के अनुरूप ही इच्छा करना चाहिए वह भी एक बार में नहीं बल्कि धीरे-धीरे । यहाँ पर उल्लेखनीय है कि आज का बाजारवाद हमें उपरोक्त सीख से विपरीत चलने की ही प्रेरणा देता है, बाजारवाद के कारण एक बार में ही अनेक, और अपने द्वारा कमाए गए धन से अधिक इच्छा करके अपने सामर्थ्य से अधिक का सामान (वह भी विलासिता वाला) लेने को हम उचित समझने लगे हैं, भले ही उसके लिए हमें कर्ज में डूब जाना पड़े ।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते । स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।
इस भ्रमणशील व् अस्थिर संसार में ऐसा कौन है जिसका जन्म और मृत्यु न हुआ हो ? लेकिन यथार्थ में जन्म लेना उसी मनुष्य का सफल है जिसके जन्म से उसके वंश के गौरव की वृद्धि हो।
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी। जिस व्यक्ति की सन्तान आज्ञाकारी है, जिसकी पत्नी वेदों के मार्ग पर चलने वाली एवं उसकी इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने वाली है, जिसे ईश्वर द्वारा दिये गये धन-वैभव आदि पर पर संतोष है, निश्चित रूप से उस व्यक्ति ने धरती पर ही स्वर्ग को प्राप्त कर लिया है।
ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः सः पिता यस्तु पोषकः।तन्मित्रं यत्र विश्वासः सा भार्या या निवृतिः।।पुत्र (संतान) वही है जो पिता का कहना मानता है, पिता वही है जो पुत्रों (संतान) का पालन पोषण करे, मित्र वह है जिस पर आप विश्वास कर सकते है और पत्नी वही है जिससे सुख प्राप्त हो।
भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात
उच्चतर:पिता। भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।
कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा॥ न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं॥
अतृणे पतितो वह्नि: स्वयमेवोपशाम्यति ।
अक्षमावान् परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत् ।।
अतिपरिचयादवज्ञा भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः। आमतौर पर अत्यधिक परिचितता से विशेष वस्तु के प्रति भी अनादर भाव पैदा हो जात है। प्रयाग में तीन पवित्र नदीयों के संगम के पास रहने वाला व्यक्ति भी स्नान कुएं के पानी से ही करता है।
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